Natasha

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राजा की रानी

अभी तक पकड़ा ही गया हूँ, पकड़ नहीं पाया हूँ। पर राजलक्ष्मी की सबसे बड़ी कमजोरी कहाँ है, आज पकड़ ली। वह जानती है कि मैं नि‍रोग नहीं हूँ, किसी भी दिन बीमार पड़ सकता हूँ। तब न जाने कहाँ की एक पूँटू मुझे घेरकर बैठी है, राजलक्ष्मी का कोई प्रभुत्व ही नहीं है- इतनी बड़ी दुर्घटना को वह अपने मन में स्थान नहीं दे सकती। संसार की सब चीजों से वह अपने को वंचित कर सकती है पर यह वस्तु असम्भव है- यह उसके लिए असाध्यु है। मौत तुच्छ है, इसके निकट एक ओर रह गये गुरुदेव और एक ओर रह गये उसके जप-तप और व्रत-उपवास। चिट्ठी में उसने मुझे झूठा डर नहीं दिखाया है।


सुबह के वक्त शायद सो गया था। रतन की पुकार सुनकर जब उठा तो काफी वक्त हो गया था। उसने कहा, “न जाने कौन एक बूढ़े महाशय घोड़ागाड़ी करके अभी आये हैं।”

वे बाबा हैं। पर गाड़ी किराये की करके? सन्देह हुआ।

रतन ने कहा, “साथ में एक सतरह-अठारह साल की लड़की है।”

वह पूँटू है। यह बेशर्म आदमी उसे कलकत्ते के मकान तक घसीट लाया है। सुबह का प्रकाश तिक्तता से म्लान हो गया। कहा, “उन्हें उस कमरे में लाकर बैठाओ रतन, मैं मुँह-हाथ धोकर आता हूँ।” यह कहकर मैं नीचे के स्नान-घर में चला गया।

घण्टे-भर बाद लौटते ही बाबा ने मेरी सादर अभ्यर्थना की, मानो मैं ही उनका अतिथि हूँ, “आओ बेटा, आओ। तबियत अच्छी है न?”

मैंने प्रणाम किया। बाबा ने पुकार मचाई “पूँटू, कहाँ गयी?”

पूँटू खिड़की के किनारे खड़ी होकर रास्ता देख रही थी, उसने पास आकर मुझे नमस्कार किया।

बाबा ने कहा, “इसकी बुआ शादी के पहले एक बार देखना चाहती थी। फूफा तो हाकिम हैं, पाँच सौ रुपया महीना पाते हैं। डायमण्ड हारबर में तबादला हुआ है- घर गृहस्थी छोड़कर बाहर जाने की फुर्सत बुआ को नहीं है। इसलिए साथ लेता आया। सोचा कि दूसरे के हाथों में सौंपने के पहले उन्हें एक बार दिखा लाऊँ। इसकी दादी-माँ ने आशीर्वाद देकर कहा, “पूँटू, ऐसा ही भाग्य तेरा भी हो।”

मेरे कुछ कहने के पहले ही खुद बोले, “मैं इतनी जल्दी नहीं छोड़ूँगा भैया। हाकिम हों चाहें और कुछ हों, हैं तो रिश्तेदार-खड़े होकर काम पूरा कराना होगा- तब उन्हें छुट्ठी मिलेगी। जानते तो हो बेटा, कि शुभ कार्य में बहुत विघ्न होते हैं- शास्त्रर में कहा ही है, 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि।' ऐसे एक आदमी के खड़े रहने पर किसी की चूँ तक करने की मजाल नहीं होगी। हमारे गाँव के लोगों का तो विश्वास है नहीं- वे सब कुछ कर सकते हैं। पर वे तो हाकिम हैं, उनकी तो राशि ही न्यारी है।

पूँटू के फूफा हैं। समाचार अवान्तर नहीं है- मतलब का है।

नया हुक्का खरीदकर रतन सयत्न चिलम सजाकर दे गया। थोड़ी देर तक गौर से देखने के बाद बाबा ने कहा, “ऐसा लगता है कि इस आदमी को कहीं देखा है?”

रतन ने फौरन ही कहा, “जी हाँ, देखा क्यों नहीं है। देश के मकान में जब बाबू बीमार थे...”

“ओ, तभी तो कहा कि पहिचाना हुआ चेहरा है।”

“जी हाँ।” कहकर रतन चला गया।

बाबा का मुँह अत्यन्त गम्भीर हो गया। धूर्त्त आदमी ठहरे, शायद उन्हें सारी बातें याद आ गयीं। चुपचाप चिलम के दम लगाते हुए बोले, “आने के लिए दिन देखकर आया था। बहुत अच्छा दिन है। मेरी इच्छा है कि आशीर्वाद का काम ऐसे ही खत्म कर जाऊँ। नूतन बाजार में तो सभी चीजें बिकती हैं। नौकर को एक बार भेज नहीं सकते? क्या कहते हो?”

जब कुछ भी कहने को न मिला तो किसी तरह सिर्फ कह दिया, “नहीं।”

“नहीं? नहीं क्यों? बारह बजे तक दिन बहुत अच्छा है। पंचांग है?”

मैंने कहा, “पंचांग की जरूरत नहीं। मैं विवाह नहीं कर सकता।”

बाबा ने हुक्के को दीवार से लगाकर रख दिया। चेहरा देखकर मैं ताड़ गया कि वह युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं। गले को बहुत शान्त और गम्भीर बनाकर कहा, “सारा आयोजन एक तरह से पूरा हो गया है। लड़की के ब्याह की बात है, हँसी-मजाक का मामला तो है नहीं। बचन दे आने पर अब ना करने पर कैसे काम चलेगा?”

पूँटू पीठ किये खिड़की के बाहर देख रही है और दरवाजे की आड़ में रतन कान लगाये खड़ा है, यह अच्छी तरह मालूम हो गया।

मैंने कहा, “वचन देकर तो नहीं आया था, यह आप भी जानते हैं और मैं भी। कहा था कि एक व्यक्ति की अनुमति मिल जाने पर राजी हो सकता हूँ।”

“अनुमति नहीं मिली?”

“नहीं।”

बाबा एक क्षण ठहरकर बेले, “पूँटू के पिता कहते हैं कि सब मिलाकर वह एक हजार रुपये देंगे। ज्यादा जोर लगाने पर और भी सौ-दो सौ दे सकते हैं; क्या कहते हो?”

रतन ने कमरे में घुसकर कहा, “तम्बाकू क्या एक बार और बदल दूँ?”

“बदल दो। तुम्हारा नाम क्या है जी?”

“रतन।”

“रतन? बड़ा सुन्दर नाम है, कहाँ रहते हो?'

“काशी में।”

“काशी? देवी आजकल शायद काशी में रहती है? वहाँ क्या करती है।”

रतन ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “उस समाचार से आपको मतलब?”

बाबा जरा हँसकर बोले, “नाराज क्यों होते हो बापू, क्रोध करने की तो कोई बात नहीं। गाँव की लड़की है न, इसीलिए खबर जानने की इच्छा होती है। शायद उसके पास भी कभी जा पड़ना पड़े। खैर, वह अच्छी तरह तो है?”

रतन बिना कोई जवाब दिये ही चला गया, और कोई दो मिनट बाद ही चिलम को फूँकता हुआ लौट आया और हुक्का हाथ में थमाकर चला जा रहा था कि बाबा बड़े जोर से कई दम लगाकर ही उठ खड़े हुए। बोले, “ठहरो तो भई, जरा पाखाना दिखा दो। सुबह ही निकल पड़ा हूँ न! कहते-कहते वे रतन के आगे ही बहुत तेजी के साथ कमरे से बाहर निकल गये।”

पूँटू ने मुँह फिराकर देखा और कहा, “बाबा की बातों पर आप एतबार मत कीजिए। पिताजी के पास हजार रुपये कहाँ हैं जो देंगे? किसी तरह दूसरों के गहने मँगनी माँगकर जीजी की शादी की थी- अब वे लोग जीजी को नहीं बुलाते। कहते हैं कि हम लड़के की दूसरी शादी करेंगे।”

इस लड़की ने इतनी बातें मुझसे पहले नहीं कही थीं। कुछ चकित होकर पूछा, “तुम्हारे पिताजी वाकई हजार रुपये नहीं दे सकते?”

पूँटू ने सिर हिलाकर कहा, “कभी नहीं। पिताजी को रेल में सिर्फ चालीस रुपये मिलते हैं। स्कूल की फीस की वजह से ही मेरे छोटे भाई की पढ़ाई बन्द हो गयी। वह कितना रोता है!” कहते-कहते उसकी दोनों ऑंखें छलछला आयीं।

प्रश्न किया, “सिर्फ रुपये के कारण ही तुम्हारी शादी नहीं हो रही है?”

पूँटू ने कहा, “हाँ इसी वजह से। हमारे गाँव के अमूल्य बाबू के साथ पिताजी ने सम्बन्ध पक्का किया था। उनकी लड़कियाँ भी मुझसे बहुत बड़ी हैं। इस पर माँ पानी में डूब मरने को गयी, तो शादी रुक गयी। इस बार शायद पिताजी किसी की कुछ न सुनेंगे, वहीं मेरी शादी कर देंगे।”

पूछा, “पूँटू, मैं तुम्हें पसन्द हूँ?”

पूँटू ने लज्जा से मुँह नीचा कर जरा सिर हिला दिया।

“पर मैं भी तो तुमसे चौदह-पन्द्रह साल बड़ा हूँ?”

पूँटू ने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया।

पूछा, “तुम्हारा क्या और कहीं कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था?”

पूँटू ने खुश होकर मुँह ऊपर उठाते हुए कहा, “हुआ तो था। आप अपने गाँव के कालिदास बाबू को जानते हैं? उनके छोटे लड़के ने बी.ए. पास किया है। उम्र भी मुझसे थोड़ी ही ज्यादा है। उसका नाम शशधर है।”

“वह तुम्हें पसन्द है?”

पूँटू हठात् हँस पड़ी।

मैंने कहा, “पर शशधर अगर तुम्हें पसन्द न करे?”

पूँटू ने कहा, “पसन्द क्यों न करेगा? हमारे मकान के सामने होकर बार-बार आता-जाता रहता है। राँगा दीदी हँसी में कहती थीं कि वह सिर्फ मेरे लिए ही चक्कर काटता है।”

“तो यह शादी क्यों नहीं हुई?”

पूँटू का चेहरा मलिन हो गया। कहा, “उसके पिता हजार रुपये नकद और हजार रुपये के गहने माँगते थे। ऊपर से शादी में भी पाँच सौ रुपये खर्च न हो जाते? इतना तो जमींदार के घर की लड़की के लिए ही हो सकता है। सच है न? वे बड़े आदमी हैं, उनके पास बहुत रुपये हैं मेरी माँ उनके यहाँ गयी और बहुत हाथ-पैर जोड़े, पर उन्होंने एक नहीं सुनी।”

“शशधर ने कुछ नहीं कहा?”

“नहीं, कुछ नहीं। पर वह भी तो बहुत बड़ा नहीं है- उसके माँ-बाप जिन्दा हैं न?”

'यही सही है। शशधर की शादी हो गयी?”

पूँटू ने व्यग्र होकर कहा, “नहीं, अभी नहीं हुई। सुना है कि जल्दी ही होगी।”

“अच्छा, वहाँ तुम्हारी शादी हो जाने पर अगर वे लोग तुमसे प्रेम न करें?”

“मुझसे? प्रेम क्यों नहीं करेंगे? मैं रसोई बनाना, सिलाई करना और गृहस्थी के सारे काम जानती हूँ? मैं अकेली ही उनका सारा काम कर दूँगी।”

इससे ज्यादा बंगाली घराने की लड़की और क्या जानती है? शारीरिक परिश्रम द्वारा ही वह सब कमियों की पूर्ति करना चाहती है। पूछा, “उन लोगों का सब काम अवश्य करोगी न?”

“हाँ, निश्चय करूँगी।”

“तो तुम अपनी माँ से जाकर कह दो कि श्रीकान्त दादा ढाई हजार रुपये भेज देंगे।”

“आप भेज देंगे? तो फिर वायदा कीजिए कि शादी के दिन आयेंगे?”

“अच्छा, आऊँगा।”

दरवाजे की देहली पर बाबा की आवाज़ सुनाई दी।

उन्होंने लाँग से मुँह पोंछते-पोंछते प्रवेश किया और कहा, “तुम्हारा पायखाना तो बहुत अच्छा है भैया! सो जाने की इच्छा होती है। गया कहाँ रतन, और एक चिलम तम्बाकू सजा दे न।”

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